
अगले दिन अर्जुन सुबह उठ ही नहीं पाया। आँख खुली तो करीब 9 बज चुके थे। हॉस्टल का लगभग सारा हिसाब वह कल ही निपटा चुका था—अब बस पैकिंग रह गई थी। सामान भी कम था, इसलिए काम ज़्यादा नहीं था।
जल्दी-जल्दी फ्रेश होकर उसने कपड़े बदले और पास की प्रेस वाली दुकान पर जाकर सारे कपड़े इस्त्री के लिए दे दिए। हिदायत देकर आया कि “भइया, आधे घंटे में चाहिए।” समय देख कर उसे एहसास हुआ कि सुबह दस बजकर तीस मिनट हो चुके थे… और अभी तक उसने नाश्ता भी नहीं किया था।




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